खुद से लड़ना फिर जीतना , विचारनामा, लेख :08


खुद से लड़ना फिर जीतना ये लड़ाई एक समयांतराल के बाद बार बार लड़नी पड़ती है , खास तौर तब जब आप युवा अवस्था में प्रवेश करते है और कई दोस्तों से दूर होना पड़ता है एक ऐसा पड़ाव जब आप अकेले होते हैं 
कई बार आपको लगता है सब ठीक या ठीक हो जायेगा 
वैसे कहें तो ठीक कुछ होता नहीं बस कुछ समय के लिए आप वो लड़ाई भूल जाते जो खुद से या अपने आस पास के लोगों से लड़ रहे होते हैं कई मायनों में हम बहुत खूब होते हैं जब हम आगे बड़ने की जद्दोजहद में लगे होते हैं एक पल के लिए जब हम टूटते रिश्तों और साथ छोड़ते दोस्तों के बारे में सोचते हैं मानो ऐसा लगता है की जीवन एक अहम हिस्सा गवां रहें हैं फिर इसी को नियती मान कर अपने मन और मस्तिष्क के बोझ का ठीकरा सामने वाले पर मढ देते हैं जिससे हमे महसूस होने लगता है की हम सही है सामने वाला गलत है फिर समय बाद मन में लड़ाई लड़ी जाती है और सामने वाले को सही और खुद को गलत बताने लगते कई ये लड़ाई बड़ी देरी से होती है जब तक नया परिणाम आता है तब तक काफ़ी देर हो चुकी होती है  

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